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राजस्थान की प्रमुख चित्रशैलियाँ | Rajasthan ki Pramukh Chitrashaliya Notes | Trick | PDF

आज राजस्थान की प्रमुख चित्रशैलियों के बारे में विस्तृत जानकारी उपलब्ध करवाई जायेगी। यहा राजस्थान की प्रमुख चित्रशैलियाँ राजस्थान gk का अति महत्वपूर्ण topic है। यदि आप भी किसी government exams की तैयारी कर रहे है, तो हमारी वेबसाइट पर आप बिल्कल free में नोट्स पढ़ सकते हो। राजस्थान में सरकार द्वारा आयोजित सभी प्रकार के एग्जाम में यहां से प्रश्न पूछे जाते है। यह पोस्ट आपके लिए उपयोगी साबित होगी। यहां पर आपको राजस्थान के सभी टॉपिक्स के नोट्स उपलब्ध करवाए जा रहे। इन टॉपिक को पढ़कर आप अपनी तैयारी को और बेहतर बना सकते है। और government की सभी महत्वपूर्ण परीक्षाओं में सफलता प्राप्त कर सकते है। 

राजस्थान में चित्रकला का प्रारम्भ 15वीं सदी में हुआ था।
राजस्थानी चित्रकला का स्वर्णकाल 17वीं – 18वीं सदी में माना जाता है।
राजस्थान में चित्रकला का सर्वप्रथम विभाजन आनंद कुमार स्वामी के द्वारा किया गया। इनके द्वारा 1916 ई. में राजपूत पेंटिंग नामक पुस्तक लिखी गई।
राजस्थानी चित्रशैली नाम सर्वप्रथम रामकृष्ण दास के द्वारा दिया गया था।
राजस्थान चित्रकला का जनक महाराणा कुम्भा को माना जाता है।
श्रृंगधर राजस्थानी चित्रकला के प्रथम चित्रकार थे।
राजस्थानी चित्रकला के आधुनिक जनक कुन्दन लला मिस्त्री है।
बैराठ सभ्यता में अनेक चित्र मिले है इस कारण से इसे ” प्राचीन युग की चित्रशाला “ कहते है।
भारत में आधुनिक चित्रकला का जनक रवि वर्मा को माना जाता है।

चित्रकला का नामकरण – 

‣ ब्राउन महोदय के द्वारा राजस्थानी चित्र कला को राजपूत कला कहा गया।

‣ H.C मेहता ने राजस्थानी चित्रकला को हिन्दू शैली कहा।

‣ रामकृष्ण दास ने राजस्थानी चित्रकला को राजस्थानी शैली कहा।

‣ आनंद कुमार स्वामी ने चित्रकला को राजपूत शैली कहा।

राजस्थानी चित्रकला का उद्भव – 

‣ 16वीं सदी में तिब्बती इतिहासकार ” तारानाथ भण्डारी ” ने मारवाड़ में मरू प्रदेश में राजा शील के दरबार में श्रृंगधर नामक चित्रकार का उल्लेख किया है।

‣ राजस्थान का प्रथम चित्रित ग्रंथ 1060 ई. का है। 

‣ दस वैकल्पिक सुप्त व नियुक्ति वृति राजस्थान सबसे प्राचीन चित्र है। यह चित्र जैसलमेर भंडार में स्थित है।

राजस्थानी चित्रकला की प्रमुख विशेषता – 

‣ राजस्थानी चित्रकला की शैलियों में मोर पक्षी की प्रधानता दी गई है।

‣ राजस्थानी की चित्र शैली में पीले व लाल रंग की बहुतायत से प्रयोग किया गया है।

‣ राजस्थानी की चित्रशैली में बारीक व कम रेखा का प्रयोग किया गया है।

‣ राजस्थानी की चित्र शैली में नायक के साथ प्राकृतिक चित्रण भी, कृष्ण लीला संबंधित चित्रों में पशुओं को भी देवता की भावना से युक्त दर्शाया गया है।

‣ रस – ऋतुओ के अनुरूप राग रागिनियों तथा बारहमासा आदि के चित्रों पर विषेता महत्व है।

‣ भक्त एवं धार्मिक ग्रंथ – महाभारत, रामायण, बिहारी सतसई, दुर्गसप्तसती आदि ग्रंथो का चित्रण किया गया है।

भौगोलिक व सांस्कृतिक आधार पर राजस्थान चित्रकला को चार भागो में विभाजित किया गया है- 
1. मेवाड़ शैली – चावण्ड, नाथद्वारा, देवगढ़
2. मारवाड़ शैली – जोधपुर, नागौर, बीकानेर, जैसलमेर, किशनगढ़, अजमेर
3. ढूंढाड़ शैली – जयपुर, अलवर, उणियारा, शेखावाटी
4. हाड़ौती शैली – कोटा, बूंदी

1. मेवाड़ शैली – 

‣ राजस्थान में चित्र शैली का सबसे प्राचीन एवं प्रमुख केन्द्र मेवाड़ था। जिस पर अजंता शैली का प्रभाव पड़ा।

‣ चित्रकला का विकास महाराणा कुम्भा के समय प्रारम्भ हुआ। इस लिए महाराणा कुम्भा को राजस्थानी चित्रकला का जनक कहा जाता है।

‣ मेवाड़ इतिहास का स्वर्ण काल महाराणा कुम्भा के समय को माना जाता है।

‣ महाराणा संग्राम सिंह के समय से मेवाड़ी चित्रों पर मुगल प्रभाव दिखाई देने लगा।

‣ मेवाड़ शैली का मुख्य केन्द्र उदयपुर है।

प्रारम्भिक ग्रंथ –

मेवाड़ शैली का सबसे प्राचीन ग्रंथ श्रावण प्रतिक्रमण सूत्र चूर्णी को 1260 में लिखा गया। जिसको ताम्र पत्रों पर महाराणा तेजसिंह के समय में आहड़ ( उदयपुर ) कलमचन्द्र द्वारा चित्रत किया गया। 

‣ 1418 में कल्पसूत्र लिखा गया।

‣ 1423 में सुपासनाह चर्यम और गीतगोविंद आदि चित्रित हुए।

‣ महाराणा मोकल के समय देवकुल पाठक ने 1422 में जैन एवं गुजराती शैली के मिश्रण से सुपार्श्वनाथ चरित्रम चित्र को दलावड़ा ( सिरोही ) में चित्रत किया गया। जिसको वर्तमान में सरस्वती संग्रहालय ( उदयपुर ) में है।

‣ चावंड में 1605 में निसारदीन द्वारा चित्रित रागमाला महाराणा अमर सिंह के समय में चित्रित हुई।

‣ सबसे अधिक मुगल शैली का प्रभाव राणा संग्राम सिंह के शासन काल में पड़ा।

‣ महाराणा जगत सिंह प्रथम काल मेवाड़ी चित्रकला का स्वर्ण काल कहा जाता है।

‣ महाराणा प्रताप के समय ढोलामारू चित्रण हुआ जिस पर मुगल शैली का प्रभाव था। इस चित्र को 1592 में चित्रित किया गया था।

‣ मेवाड़ शैली का सबसे सुंदर चित्रण चौरपंचाशिका तथा पालम भागवत का हुआ है।

मेवाड़ शैली की उपशैलियां – 

1. उदयपुर शैली – 

‣ राजस्थान की चित्रकला की मूल शैली है। इसको चित्रशैलियों की जननी भी कहते है।

‣ इस शैली का प्रारम्भिक विकास राणा कुम्भा के समय में हुआ था।

‣ इस शैली का स्वर्णकाल जगत सिंह प्रथम काल में हुआ। महाराणा जगत सिंह के समय उदयपुर के राजामहलों में चितेरों की ओवरी / तस्वीरों का कारखानों नामक विद्यालय खोला गया।

‣ मेवाड़ ( उदयपुर ) चित्रशैली का सर्वप्रथम चित्र रागमाला चित्र है जिसको वर्तमान में दिल्ली के अजायबघर में रखा गया है।

‣ 18वीं सदी में उदयपुर चित्रशैली में राजा – रानियों दरबारी चित्र बनने प्रारम्भ हो गए थे।

‣ महाराणा भीम सिंह के समय भित्ति चित्र बनाने प्रारम्भ हुए।

2. नाथद्वारा शैली – 

‣ नाथद्वारा चित्र शैली का प्रारम्भ राजसिंह के समय में हुआ था।

‣ इनके समय में चित्रकाल का स्वर्णकाल माना जाता है।

‣ इस शैली को वल्लभ शैली भी कहा जाता है।

‣ इस चित्र शैली में पुष्टि मार्ग / वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव अधिक पड़ा है।

‣ इस शैली के प्रमुख रंग – इस चित्रशैली में पीला व हरे रंग का अधिक प्रयोग किया गया है।

‣ इस चित्रशैली में कपड़े पर चित्रकारी की जाता है। जिसको पिछवाई कहा जाता है।

‣ इस चित्रशैली में सर्वाधिक धार्मिक प्रभाव पड़ा है।

‣ इसमें श्रीकृष्ण व यशोदा का चित्र अधिक है।

‣ नाथद्वारा चित्रशैली व्यवसायिक चित्रकला की ओर अग्रसर है।

‣ इस चित्रशैली का उद्धव व विकास नाथद्वारा में श्रीनाथजी के स्वरूप की स्थापना के बाद से माना जाता है।

‣ राणा राजसिंह के समय पृथ्वीराज, री वेल, कादंबरी, पंचतंत्र, मालती – मालव, एकादशी महात्म्य आदि चित्र चित्रत किए गए।

‣ प्रमुख चित्रकार –
घनश्याम, नारायण चतुर्भुज, हीरा लाल, विट्टल दास, देवकृष्ण, हरदेव, घासीलाल, उदयराम, कमला व इलायची, चंपालाल प्रमुख चित्रकाल है।

3. चांवड चित्रशैली – 

‣ इस चित्रशैली का प्रारम्भ राणा प्रताप के समय हुआ।

‣ राणा अमर सिंह के समय को इस शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।

‣ निसारदीन ने 1592 ई. में ढोलामारू का चित्र बनाया, जिसको वर्तमान समय में दिल्ली संग्रहालय में रखा गया है।

‣ 1605 ई. में निसारदीन ने रागमाल का चित्रण किया।

4. देवगढ़ ( राजासंमद ) चित्रशैली – 

‣ इस चित्रशैली को प्रकाश में लाने का श्रेय श्रीधर अंधारे को जाता है।

‣ इस शैली का प्रारम्भ देवगढ़ के रावल द्वारका दास के समय में हुआ था।

‣ इस शैली का सर्वाधिक विकास जयसिंह के समय में हुआ था।

‣ इस शैली में सर्वाधिक हरे व पीले रंग का प्रयोग किया गया है।

‣ इस शैली में मवाड़, मारवाड़ा व ढूंढाड़ का मिश्रण है।

‣ इस चित्रशैली में हाथियों की लड़ाई, राजदरबार के दृश्य तथा वल्लभ सम्प्रदाय का प्रभाव दिखाई देता है।

‣ प्रमुख चित्रकार – 
चोखा, कमला, वैजनाथ/ वैदनाथ आदि प्रमुख चित्रकार थे।

2. मारवाड़ शैली – 

‣ तिब्बती इतिहासकार ने मरुप्रदेश में श्रृंगधर नामक चित्रकार का उल्लेख किया है जो राजस्थान का प्रथम चित्रकार माना जाता है।

(1) जोधपुर चित्रशैली – 

‣ इस चित्रशैली में मुगल शैली का प्रभाव है।

‣ इस चित्रशैली का सर्वाधिक विकास राव मालदेव के समय में हुआ था। 

‣ मालदेव ने भित्ति चित्रों में सप्तसती के दृश्य व राम – रावण के युद्ध के दृश्य देखने को मिलते है।

‣ चोलेलाव महल में मालदेव ने भित्ति चित्र बनवाएं।

‣ जसवंत सिंह प्रथम के समय का इस शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।

‣ इस शैली पर मुगल शैली का प्रभाव मोटा राजा उदयसिंह के समय पड़ा।

‣ विजयसिंह के समय मारवाड़ शैली पर वैष्णव संप्रदाय का प्रभाव पड़ा इसमें राधा कृष्ण के चित्र चित्रित किए गए।

‣ इस चित्रशैली में महाराजा तख्तसिंह के समय में मारवाड़ चित्रशैली पर यूरोपियन चित्रशैली का प्रभाव पड़ा तथा सुनहरे रंगो का प्रयोग होने लगा।

जोधपुर शैली के प्रमुख चित्रकार – 
‣ अमरदास 
‣ रामसिंह
‣ शिवदास 
‣ फहह मोहम्मद 
‣ डालचंद
‣ गोपी कुम्हार 
‣ छज्जू भाटी

जोधपुर शैली के प्रमुख चित्र – 
‣ ढोलामारू
‣ गुणकली रागिनी
‣ कैश संवारती नायक
‣ दशहरा दरबार 
‣ गुजरी रागिनी
‣ स्त्री हुक्का पीते हुवे 

जोधपुर शैली की प्रमुख विशेषता – 

‣ चन्दन मलय गिरि, मृगवती, फूलवती री वार्ता, ढोलामारू रा दुहा, जयदेव का गीत – गीतागोविंद, मधुमालती, रसिक प्रिया, विरादेव सोनीगरा री बात, बेली क्रसन रुकमणी रो आदि विषय मारवाड़ शैली की विशेषता है।

‣ इस चित्रशैली में पीले रंग अधिक प्रयोग किया गया है।

‣ बादमनुमा आंखे, आम का वृक्ष, कौआ, चील, ऊंट, घोड़ा, कुत्ता, ढोलामारू, कंटीली झाड़ियां, रेगिस्तान, मोतियों के आभूषण, मखमल की जूतियां, गहरे काले बादल, खंजन पक्षी, लंबी पगड़ियां आदि का चित्रण किया गया है।

‣ पुरुष आकृति की अरुणाभ बड़ी आंखे, कान तक खीची हुई बड़ी मूंछे व घनी दाढ़ी,महिलाओं को लंहगा, ओठनी पहने दिखाया गया है।

2. किशनगढ़ शैली – 

‣ एरिक डिक्सन व फैयाज अली के द्वारा प्रकाश में लाया गया।

‣ सावंत सिंह के समय को इस शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।

‣ सावंत सिंह के द्वारा दीपावली व सांझी का चित्रण किया गया।

‣ निहालचंद के द्वारा नागर समुच्चय के नाम से 75 चित्रित ग्रन्थों की रचन की गई।

‣ निहालचन्द के द्वारा 1750 ई. में राधा व कृष्ण का चित्र बनाया जिसमे राधा व कृष्ण एक दूसरे को निहार रहे है।

विशेषता – 

‣ इस चित्रशैली में श्वेत व गुलाबी रंग का प्रयोग किया गया है।

‣ इस शैली में मोर, बतख, भंवरा, हंस, केला, गाय, खंजरनुमा, आंखे, कमल का फूल व ऋतुओ का चित्रण किया गया है।

‣ इस शैली के प्रमुख चित्रकार – 
लाडली दास, रामलाल, नगराम, नानकराम, सीताराम, सुरध्वज, अमीरचन्द, छोटू आदि इस शैली प्रमुख चित्रकार है।

बणी – ठणी – 

‣ एरिक डिक्सन ने बणी – ठणी चित्र की मोनालिसा कहा है।

‣ इस शैली के चित्र बणी – ठणी पर सरकार द्वारा 1973 में 20 पैसे की डाक टिकट जारी की गई।

‣ इस चित्र को प्रकाश में लाने का काम एरिक डिक्सन व फैयाज ने किया था।

‣ बणी – ठणी का चित्र वर्तमान में किशनगढ़ संग्रहालय में स्थित है तथा इसकी एक प्रतिलिपि अल्बर्ट हॉल ( पेरिस ) में स्थित है।

‣ किशनगढ़ चित्रशैली में ब्रज साहित्य व कांगड़ा शैली का भी प्रभाव पड़ा।

‣ किशनगढ़ चित्रशैली में सर्वाधिक चित्र कागज पर चित्रित किए गए है जिसकी वजह से इसे वसली ( कागज ) शैली भी कहा जाता है।

3. बीकानेर चित्रशैली – 

‣ इस शैली में मुगल शैली का प्रभाव कल्याण मल के समय पड़ा तथा सर्वाधिक मुगल प्रभाव रायसिंह के समय था।

‣ इस शैली के सबसे प्राचीन ग्रंथ भगवत पुराण है जिसको रायसिंह के समय चित्रित किया गया था।

‣ इस चित्रशैली का स्वर्णकाल अनुपसिंह के समय को माना जाता है।

‣ अनुपसिंह के द्वारा लाहौर से उस्ता कला के चित्रकारों को बीकानेर लाए थे जिसको उस्ताद कहा जाने लगा।

‣ उस्ता व मथेरण परिवार ने उस्ता कला को बढ़ावा दिया। 

‣ साहेबदीन, रुकनुदीन, कायम खां, उस्ता जाती के प्रमुख कलाकर थे।

‣ हिसामुदीन को उस्ता कला में 1986 ई. में पदम्श्री अवार्ड दिया गया।

‣ इस चित्रकला में नीला, पीला, लाल, हरा, बैंगनी, जमुनी रंग, मृगनयन आंखे, आम के वृक्ष, पगड़िया, कौआ, ऊंट, घोड़ा, के चित्र बनाए जाते है।

‣ इसमें चित्रकार अपने चित्र के नीचे अपना नाम व तिथि लिखते है।

‣ रागमाला, शिकार के दृश्य, राग – रागनी, बारह – मासा बीकानेर चित्रशैली प्रमुख है।

प्रमुख चित्रकार – 

‣ चांदू लाल, लालचन्द, मुकुन्द, मथैरणा इस चित्र कला के प्रमुख चित्रकार है।
‣ रहीम खां, अहमद उमरानी, साहिबादिन, अब्दुला, हसन, रुकद्दीन, अलीराजा, कासिम, बहाउद्दीन, शाह मुहम्मद, कायम, नाथू, हिसामुद्दीन उस्ता इस चिताकला के प्रमुख चित्रकार थे।

4. जैसलमेर चित्रशैली – 

‣ इस चित्रकला का प्रारम्भ हरराज भाटी समय में हुआ।

‣ इस शैली का स्वर्णकाल मूलराज द्वितीय व अखेसिंह के समय को माना जाता है।

‣ इस शैली में किसी भी चित्रशैली का प्रभाव नही पड़ा।

‣ इस चिताशैली में लोद्रवा की राजकुमारी मूमल व अमरकोट के राजा महेन्द्र के प्रेम की कहानी चित्रित की गई है।

5. नागौर चित्रशैली – 

‣ 18वीं सदी में इस चित्रशैली के प्रारम्भ हुआ।

‣ नागौर चित्रशैली भित्ति चित्रशैली के लिए प्रसिद्ध है।

‣ इस चित्रशैली में उदास व मुझे रंगो केएस प्रयोग हुआ है।

‣ इस शैली की भित्ति चित्रों को सर्वाधिक बढ़ावा महाराजा बख्तसिंह के द्वारा दिया गया।

‣ नागौर चित्रशैली में वृद्ध व्यक्ति के चेहरे पर जुहरिया, परादर्शी वेशभूषा, सफेद मूछे, छोटी आंखों का चित्रण किया गया है।

6. अजमेर शैली – 

‣ इस शैली में सभी रंगो का संयोजन है।

‣ इस शैली में सामंती वैभव व दरबार के सर्वाधिक चित्र बने है। गरीबों के घरों में इस शैली के चित्र बने।

‣ गांवों में लोकजीवन में इस शैली के सर्वाधिक चित्र बने।

‣ प्रमुख चित्रकार – 
रामसिंह, तैय्यब, मधोजी, राम, साहिबा, नारायण प्रमुख चित्रकार है।

3. ढूंढाड़ चित्रशैली – 
‣ इस चित्रशैली में सबसे अधिक मुगल प्रभाव पड़ा।

1. जयपुर चित्रशैली – 
‣ सवाई जयसिंह में समय में इस चित्रशैली का प्रारम्भ हुआ।
‣ इस शैली का स्वर्णकाल सवाई प्रताप सिंह के समय को माना जाता है।
‣ इस चित्रशैली पर सबसे पहले आमेर चित्रशैली का प्रभाव पड़ा। तथा 19वीं सदी में इस चित्रशैली पर यूरोपियन शैली का प्रभाव पड़ा।
‣ जयपुर के शासक ईश्वरी सिंह के समय इस शैली में राजा महाराजाओं के बड़े – बड़े आदमकद चित्र दरबारी चित्रकार साहिब राम के द्वारा तैयार किया गया।
‣ इस चित्रशैली में हासियों को गहरे लाल रंग से बनाया गया है। यह इसकी प्रमुख विशेषता है।
‣ इस शैली में महिलाओं का आकार मध्यम प्रकार का है जो दुपट्टा, कुर्ता, ओढ़नी, पयजामे, पारदर्शी चुन्नी ओढ़े है। तथा चूड़ी, देवटा, हार, बाली प्रमुख आभूषण है।
‣ युद्ध प्रसंग, जानवरों की लड़ाई, कामसूत्र व पौराणिक कथाएं प्रमुख चित्रण के विषय है।
‣ ईश्वरी सिंह के समय लालचंद ने गंगवाना युद्ध का चित्र बनाया।
‣ मोहम्मद शाह के द्वारा 1772 ई. में यशोधरा का चित्र बनाया।
‣ सवाई प्रताप सिंह के दरबार में गन्धर्व बाइसी के कई चित्रकार थे।
‣ रामसिंह के समय 1857 ई. में जयपुर में महराजा स्कूल ऑफ आर्ट्स बनाई गई।
‣ रामसिंह के समय में रनिवास, शिव, देवी, तवायफों आदि के चित्र बनने लगे थे।
‣ प्रमुख चित्रकार – 
राजीदास, लालचंद, शाहीबराम, घासीराम, हरीनारायण, राधाकिशन, रामदीन, त्रिलोक, हुकमा, फेदुला, हीरा, राधिनाथ, मन्ना, राधाकिशन, गंगबाक्स आदि प्रमुख चित्रकार है।

2. आमेर चित्रशैली – 
‣ इस चित्रशैली का प्रारम्भ मानसिंह के समय में हुआ था।
‣ मिर्जा राजा जयसिंह के काल में आमेर चित्रकला शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।
‣ इस शैली में प्राकृतिक रंगो का प्रयोग किया गया है।
‣ इस चित्रशैली में रामायण, पंचतंत्र, इडिका व रामचरितमानस से संबंधित चित्र बनाए गए है।
‣ आमेर चित्रशैली का प्रयोग आमेर महलों ,में भित्ति चित्रण के रूप एम किया गया है।
‣ प्रमुख चित्र – आदि पुराण, बिहारी सतसई इस शैली के प्रमुख चित्र है।
‣ प्रमुख चित्रकार – 
हुकुमचंद, मन्नालाल, मुरारी आदि प्रमुख चित्रकार है।

3. अलवर चित्रशैली – 
‣ इस शैली पर मुगल, ईरानी व जयपुर शैली का प्रभाव है।
‣ अलवर चित्रशैली प्रतापसिंह के समय प्रारम्भ हुई तथा विनयसिंह का समय इस शैली का स्वर्णकाल था।
‣ सवाई प्रताप सिंह के समय में डालूराम नमक चित्रकार जयपुर से अलवर आया तथा राजगढ़ के किले शीश महल में इसके द्वारा भित्ति चित्रण किए गए।

इस शैली की प्रमुख विशेषताएं – 
‣ इसमें हरे रंग, मछलीनुमा आंखे, मोर, घोड़े पीपल इस शैली की प्रमुख विशेषताएं है।
‣ मूलचंद के द्वारा हाथीदांत पर चित्र बने गए।
‣ अलवर के रंग महल के चित्र गुलाम अली तथा बलदेव के द्वारा चित्रित किए गए।
‣ यह एकमात्र ऐसी चित्रशैली है जिसमे वैश्या के चित्र है।
‣ कामशास्त्र पर चित्र शिवदान सिंह के समय बनाए गए।
‣ बसलो चित्रण अर्थात बार्डर पर सूक्ष्म चित्रण व योगासन इस चित्रशैली के प्रमुख विषय है।
‣ शेखसादी रचित गुलिस्ता ग्रंथ विनय सिंह के समय चित्रित किया गया। इसमें 17 रंगीन चित्र है।
‣प्रमुख चित्रकार – 
मंगलसेन, बुद्धराम, नानक राम, छोटेलाल, डालचंद, गुलाबअली. मूलचंद, बलदेव आदि इस शैली के प्रमुख चित्रकार है।

4. शेखावाटी चित्र शैली – 
‣ इस चित्रशैली का प्रारम्भ 15वीं सदी में हुआ।
शेखावाटी चित्रशैली भित्ति चित्रण के लिए प्रसिद्ध है।
‣ इस शैली का विकास सार्दुल सिंह शेखावत के काल में हुआ।
‣ शेखावाटी चित्रशैली में हवेलियों में भित्ति चित्रण के रूप में हुआ आई।
‣ इस शैली में भित्ति चित्रकार चेजारे कहलाते है।
‣ लोक जीवन में इस शैली का प्रमुख चित्रण विषय झांकी रहा है।
‣ इस शैली के भित्ति चित्रकार अपने चित्रों पर अपना नाम तथा तिथि अंकित करते है।
‣ रेलगाड़ी, मोटरगाड़ी, योद्धाओं के चित्र, घोड़े, हवाई जहाज, हीर – रांझा, सामाजिक व धार्मिक चित्रांकन इस शैली की प्रमुख विशेषता है।
‣ देवा के द्वारा जोगीदास की छतरी पर चित्रांकन किया गया।

5. उनियारा शैली – 
‣ इस शैली में बूंदी व जयपुर शैली का मिश्रण है।
‣ उनियारा शैली के सरदार सिंह तथा संग्राम सिंह के द्वारा प्रसिद्ध किया गया।
‣ इस चित्रशैली में जयपुर व बूंदी के मध्य उनियारा ठिकाने में प्रसिद्ध है।
‣ इस शैली का प्रमुख विषय रसिक प्रिया है रसिक प्रिया रीति कल के प्रसिद्ध कवि केशव द्वारा लिखा गया ग्रंथ है।
‣ प्रमुख चित्रकार – 
धीमा, मीर बक्ष, भीम, काशी, राम – लखन आदि प्रमुख चित्रकार है।

4. हाड़ौती चित्रशैली – 

1. बूंदी शैली – 
‣ बूंदी चित्रशैली का प्रारम्भ सुर्जन सिंह के समय प्रारम्भ हुई।
‣ इस शैली का स्वर्णकाल सुर्जन सिंह के समय को माना जाता है।
‣ बूंदी शैली के अंतर्गत राव उम्मेद सिंह का जंगली सुअर का शिकार करते हुए बनया गया चित्र प्रसिद्ध है।
‣ बूंदी शैली मेवाड़ शैली से प्रभावित रही है।
‣ शासक शत्रुशाल के समय बूंदी चित्रशैली पर विलासिता का प्रभाव पड़ने लगा।
‣ छत्रसाल के द्वारा भित्ति चित्रों का रंगमहल बनवाया गया।
‣ विष्णुसिंह के समय इस शैली का यूरोपियन प्रभाव पड़ना प्रारम्भ हुआ।
‣ इस चित्रशैली में मुगल, मेवाड़, मालवा शैली का मिश्रण है।
‣ इस चित्रशैली को पशु – पक्षियों की चित्रिशैली कहा जाता है। इस शैली में सोने चांदी के रंगो का अधिक प्रयोग किया गया।

2. कोटा शैली – 
‣ कोटा शैली रामसिंह के समय में प्रारम्भ हुई।
‣ उम्मेद सिंह के समय को इस शैली का स्वर्णकाल माना जाता है।
‣ छात्रशाल के समय कोटा शैली ने स्वतंत्र अस्तित्व बनाया। तथा महारावल भीमसिंह के समय इस शैली पर कृष्ण भक्ति का प्रभाव पड़ा।
‣ शिकारी दृश्यों का चित्रण इस शैली की प्रमुख विशेषता है।
‣ यह चित्रशैली राज्य की एकमात्र इसी शैली है जिसमे महिलाओं को शिकार करते हुए दर्शाया गया है।
‣ इस शैली में डालू चित्रकार ने 1768 में रागमाला सेट बनाया। जो कोटा का सबसे बड़ा रागमाला सैट है जिसमे रानियों को शिकार करते दिखाया गया है।
‣ प्रमुख चित्रकार – 
गोविंदा, लालचंद, डालू, लछी, नुरामोहम्मद, रघुनाथ आदि प्रमुख चित्रकार है।

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