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प्रथम साका
प्रथम साका सन् 1303 ई. में हुआ जब दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर विजय के बाद चित्तौड़ को आक्रान्त किया। अलाउद्दीन की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा तथा राणा रतनसिह की अत्यन्त सुन्दर रानी पद्मिनी को पाने की लालसा हमले का कारण बनी।
दूसरा साका
दूसरा साका सन् 1534-35 ई. में हुआ जब गुजरात के सुल्तान बहादुर शाह ने एक विशाल सेना के साथ चित्तौड़ पर जोरदार आक्रमण किया। राजमाता हाड़ी कर्मवती और दुर्ग की सैकड़ों वीरांगनाओं ने जौहर का अनुष्ठान कर अपने प्राणों की आहुति दी।
तीसरा साका
तीसरा साका सन् 1567-68 ई. में हुआ जब मुगल बादशाह अकबर ने राणा उदयसिह के शासन काल में चित्तौड़ पर आक्रमण कियायह साका जयमल राठौड़ और पत्ता सिसोदिया के पराक्रम और बलिदान के लिए प्रसिद्ध है। जैसलमेर दुर्ग
जैसलमेर का पहला साका उस समय हुआ जब दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने विशाल सेना के साथ आक्रमण कर दुर्ग को घेर लिया। इसमें भाटी शासक रावल मूलराज, कुंवर रतनसी सहित अगणित यौद्धाओं ने असिधारा तीर्थ में सान किया तथा ललनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया।
दूसरा साका फिरोजशाह तुगलक के शासन के प्रारंभिक वर्षों में हुआ। रावल दूदा, त्रिलोकसी व अन्य भाटी सरदारों और यौद्धाओं ने शत्रु सेना से लड़ते हुए वीरगति पाई और दुर्गस्थ वीरांगनाओं ने जौहर किया।
जैसलमेर का तीसरा साका ‘अर्द्ध साका’ कहलाता है। कारण इसमें वीरों ने केसरिया तो किया (लड़ते हुए वीरगति पाई) लेकिन जौहर नहीं हुआअतः इसे आधा साका ही माना जाता है। यह घटना 1550 ईकी है जब राव लूणकरण वहाँ का शासक था। कंधार के अमरअली पठान ने धोखे से आक्रमण किया था।
रणथम्भौर दुर्ग
रणथम्भौर का प्रसिद्ध साका 1301 ई. में हुआ जब वहाँ के पराक्रमी शासक राव हम्मीर देव चौहान ने अलाउद्दीन के विद्रोही सेनापतियों को अपने यहाँ आश्रय देकर शरणागत वत्सलता के आदर्श और अपनी आन की रक्षा करते हुए विश्वस्त योद्धाओं सहित वीरगति प्राप्त की तथा रानियों व दुर्ग की वीरांगनाओं ने जौहर का अनुष्ठान किया।
गागरोण दुर्ग
गागरोण का पहला साका सन् 1423 ई. में हुआ जब वहाँ के अतुल पराक्रमी शासक अचलदास खींची के शासनकाल में मांडू के सुल्तान अलपखां गोरी (उर्फ होशंगशाह) ने आक्रमण किया। फलतः भीषण संग्राम हुआ जिसमें अचलदास ने अपने बंधु-बांधवों और यौद्धाओं सहित शत्रु से जूझते हुए वीरगति प्राप्त की तथा उसकी रानियों व दुर्ग की अन्य ललनाओं ने अपने को जौहर की ज्वाला में होम दिया। ‘अचलदास खींची की वचनिका’ में इसका विस्तार से वर्णन हुआ है।
गागरोण का दूसरा साका 1444 ई. में हुआ जब मांडू के सुल्तान महमूद खिलजी ने विशाल सेना के साथ इस दुर्ग पर आक्रमण किया।
जालोर दुर्ग
जालोर का प्रसिद्ध साका 1311-12 ई. में हुआ जब सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर पर आक्रमण किया। जालोर के पराक्रमी शासक कान्हड़देव सोनगरा (चौहान) और उसके पुत्र वीरमदेव के त्याग और बलिदान तथा वीरांगनों के जौहर की घटना ने इसे इतिहास में प्रसिद्धि दिलायी। कवि पद्मनाभ विरचित’ कान्हड़दे प्रबन्ध नामक ऐतिहासिक काव्य में इसका विशद वर्णन हुआ।
नवाणा दुर्ग
सिवाणा का पहला साका 1307-08 ई. में हुआ जब वीर सातलदेव/शीतलदेव और सोम (सोमेश्वर) ने अलाउद्दीन खिलजी के भीषण आक्रमण का प्रतिरोध करते हुए प्राणोत्सर्ग किया तथा वीरांगनाओं ने जौहर की ज्वाला प्रज्जवलित की। विजय के उपरान्त दुर्ग का नाम ‘खैराबाद’ रखा गया।
दूसरा साका अकबर के शासनकाल में हुआ जब मोटा राजा उदयसिह ने शाही सेना की सहायता से सिवाणा दुर्ग पर आक्रमण किया। वहाँ के स्वाभिमानी शासक वीर कल्ला राठौड़ ने भीषण युद्ध करते हुए वीरगति पायी और महिलाओं ने जौहर किया।