You can find notes,question and quiz on various topic in Hindi. India Gk. Notes

राजस्थान की प्राचीन सभ्यताएँ | Rajasthan ki Prachin Sabhyata notes

प्राचीन सभ्यताएँ एवं पुरातात्विक स्थल

इतिहास को प्रागैतिहासिक काल, आद्यऐतिहासिक काल एवं ऐतिहासिक काल में विभाजित किया जाता है।

ऐसा काल जिसके संबंध में मानव के इतिहास के बारे में कोई लिखित सामग्री उपलब्ध नहीं होती है उसे प्रागैतिहासिक काल कहते हैं।

ऐसा काल जिसके संबंध में लिखित सामग्री उपलब्ध है लेकिन जिसे अभी तक पढ़ा नहीं जा सका है उसे

आद्यऐतिसाहिक काल कहते हैं। जैसे सिन्धुघाटी सभ्यता।

ऐसा काल जिसके संबंध में प्राप्त लिखित सामग्री को पढ़ा जा सकता है उसे ऐतिहासिक काल कहते हैं।

राजस्थान में इस समय के आदिमानव द्वारा प्रयुक्त जो प्राचीनतम पाषाण उपकरण प्राप्त हुए हैं वे लगभग डेढ़ लाख वर्ष पुराने हैं।

राज्य में इस काल के बनास, बेड़च, गम्भीरी एवं चंबल आदि नदियों की घाटियों तथा इनके समीपवर्ती स्थानों से प्रस्तरयुगीन मानव के निवास करने के प्रमाण मिलते हैं।

पुरापाषाण काल :

इस काल में मनुष्य द्वारा पत्थर के खुरदरे औजार प्रयोग में लिये जाते थे।

वर्ष 1870 में सी.ए. हैकर ने जयपुर व इन्द्रगढ़ में ‘हैण्डएक्स’, ‘एश्यूलियन’ व ‘क्लीवर’ नामक औजारों की सर्वप्रथम खोज की।

प्रारम्भिक पाषाणकालीन स्थल ढिगरिया (जयपुर), मानगढ़, नाथद्वारा, हम्मीरपुर (भीलवाड़ा), मण्डपिया (चित्तौड़), बींगीद (भीलवाड़ा) एवं देवली (टोंक)।

इस काल में मानव के राजस्थान में जयपुर, इन्द्रगढ़, अजमेर, अलवर, भीलवाड़ा, झालावाड़, चित्तौड़गढ़, जालौर, पाली, जोधपुर आदि जिलों में विस्तृत होने के प्रमाण मिले हैं।

राजस्थान के विराटनगर, भानगढ़ तथा ढिगारिया आदि स्थानों से ‘हैण्डएक्स’ संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

विराटनगर में शैलाश्रयों एवं प्राचीन गुफाओं से पुरापाषाण काल से उत्तरपाषाण कालीन सामग्री प्राप्त हुई है।

विराटनगर के शैलाश्रयों में चित्र प्राप्त नहीं हुए है जबकि भरतपुर जिले के दर नामक स्थान से कुछ चित्रित शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं जिसमें मानव आकृति, व्याघ्र, बारहसिंगा तथा सूर्य आदि का चित्रण मिला है।

बी ऑलचिन ने पश्चिमी राजस्थान में लूणी नदी के किनारे तथा जालौर जिले के बालू के टीलों में पाषाणयुगीन उपकरणों की खोज की।

पुरापाषाण कालीन मानव का भोजन कंदमूल, फल, मछली तथा शिकार से प्राप्त वन्यजीव थे।

इस काल में मृतक के शरीर को जंगली जानवरों को खाने के लिए फेंक दिया जाता था।

इस समय मानव आग जलाना सीख चुका था लेकिन पहिये का आविष्कार अभी तक नहीं हुआ था।

इस काल में पत्थर से निमित उपकरण एवं हथियार चित्तौड़गढ़ में बामनी नदी के तट पर भैंसरोड़गढ़, नवाघाट

से, बेड़च एवं गम्भीरी नदी के तट पर खोर, नगरी, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी आदि से, बनास नदी के तट पर एवं भीलवाड़ा में जहाजपुर, बीगोद, देवली, हम्मीरगढ़, खुरियास, मंगरोप, कुंवारिया, गिलूंड आदि से, जोधपुर जिले

में लूणी नदी के तट से, गुहिया और बांडी नदी की घाटी में सिगारी तथा पाली से, मारवाड़ में शिकारपुरा, समदड़ी, पीचक, भाडेल, सोजत, धनेरी, धुंधाड़ा, पीपाड़ एवं उम्मेदनगर से, झालावाड़ में गागरोन से, अजमेर जिले में सागरमती के तट पर गोविन्दगढ़ से, कोटा जिले में परवन नदी के तट से तथा टोंक जिले में बनास नदी के तट पर जगन्नाथपुरा, सियालपुरा, तारावट, गोगासला, भुवाण, भरनी आदि से प्राप्त हुए हैं।

मध्यपाषाण काल

मध्यपाषाण काल का आरम्भ 10 हजार ईपू. से माना जाता है।

इस काल के उपकरणों में ‘स्क्रेपर’ एवं ‘पाइंट’ विशेष उल्लेखनीय है जो अपेक्षाकृत छोटे-हल्के एवं कुशलतापूर्वक बनाये गये थे।

यह उपकरण लूणी तथा उसकी सहायक नदियों की घाटियों में, चित्तौड़गढ़ जिले की बेड़च नदी की घाटी में तथा विराटनगर (जयपुर) से प्राप्त हुए हैं।

इस काल तक मानव पशुपालन सीख चुका था लेकिन उसे कृषि का ज्ञान नहीं था।

उत्तर/नवपाषाण काल :-

नवपाषाण काल का आरम्भ 5 हजार ई. पू. से माना जाता है।

नवपाषाण काल में कृषि द्वारा खाद्य उत्पादन किया जाने लगा तथा इस काल में पशुपालन उन्नत हो चुका था।

राजस्थान में नवपाषाण काल के अवशेष चित्तौड़गढ़ जिले में बेड़च व गम्भीरी नदियों के तट पर, चंबल व बामनी नदियों के तट पर भैंसरोड़गढ़ व नवाघाट से, बनास नदी के तट पर हम्मीरगढ़, जहाजपुर एवं देवली, गिलुंड से, लूणी नदी के तट पर पाली, समदड़ी, से, टोंक जिले में भरनी आदि स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

इस काल में मानव घर बनाकर रहने लगा तथा मृतकों को समाधियों में गाढ़ना प्रारम्भ कर दिया।

प्रसिद्ध पुरातत्वविद् ‘गार्डन चाइल्ड’ ने नवपाषाण काल को पाषाणकालीन क्रांति की संज्ञा दी।

नवपाषाण काल में समाज में व्यवसाय के आधार पर जाति व्यवस्था का सूत्रपात हुआ था।

शैलाश्रय :-

राजस्थान में अरावली पर्वत श्रृंखला तथा चंबल नदी की घाटी से शैलाश्रय प्राप्त होते हैं, जिनसे प्रागैतिहासिक काल के मानव द्वारा उपयोग में लाये गए पाषाण उपकरण, अस्थि अवशेष तथा अन्य सामग्री प्राप्त हुई है।

इन शैलाश्रयों में सर्वाधिक आखेट से संबंधित चित्र उपलब्ध होते हैं।

बूंदी में छाजा नदी तथा कोटा में चंबल नदी क्षेत्र अरनीया उल्लेखनीय है।

इनके अतिरिक्त विराटनगर (जयपुर), सोहनपुरा (सीकर) तथा हरसौरा (अलवर) आदि से चित्रित, शैलाश्रय प्राप्त हुए हैं।

1. कालीबंगा :-

कालीबंगा कांस्ययुगीन सभ्यता मानी जाती है।

कालीबंगा सभ्यता का समय 2350 ई.पू. से 1750 ई.पू. माना जाता है। (कार्बन डेटिंग पद्धति के अनुसार)

कालीबंगा प्राचीन सरस्वती (वर्तमान में घग्घर) नदी के बायें तट पर हनुमानगढ़ जिले में है।

नोट – सरस्वती नदी का सर्वप्रथम उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मण्डल में मिलता है। सरस्वती नदी की उत्पत्ति तुषार क्षेत्र से मानी गई है। सरस्वती नदी का वर्तमान स्वरूप घग्घर नदी है। घग्घर नदी को सोतर नदी, मृत नदी, लेटी हुई नदी,

राजस्थान का शोक भी कहा जाता है।

वर्ष 1952 में पहली बार अमलानंद घोष ने इसकी पहचान सिधुघाटी सभ्यता के स्थल के रूप में की।

वर्ष 1961-1969 तक नौ सत्रों में बी. बी. लाल तथा बी.के. थापर के निर्देशन में यहाँ पर उत्खनन कार्य किया

गया।

कालीबंगा से पूर्व हड़प्पाकालीन, हड़प्पाकालीन तथा उत्तर-हड़प्पाकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से उत्खनन में प्राप्त काली चूड़ियों के टुकड़ों के कारण इसे कालीबंगा नाम दिया गया।

कालीबंगा का शाब्दिक अर्थ :- काले रंग की चूड़ियाँ।

कालीबंगा स्वतंत्र भारत का पहला पुरातात्विक स्थल है जिसका स्वतंत्रता के बाद पहली बार उत्खनन किया गया।

कालीबंगा देश का तीसरा सबसे बड़ा पुरातात्विक स्थल है। देश के दो बड़े पुरातात्विक स्थलों में राखीगढ़ी (हरियाणा) एवं धौलावीरा (गुजरात) है।

कालीबंगा को ‘दीन-हीन’ बस्ती भी कहा जाता है।

विश्व में सर्वप्रथम भूकम्प के साक्ष्य कालीबंगा में ही मिले हैं।

विश्व में सर्वप्रथम लकड़ी की नाली के अवशेष कालीबंगा में से प्राप्त हुए हैं।

कालीबंगा से प्राचीनतम नगर के साक्ष्य मिले हैं।

कालीबंगा में मातृसत्तात्मक परिवार की व्यवस्था विद्यमान थी।

कालीबंगा से कपालछेदन क्रिया का प्रमाण मिलता है।

कालीबंगा से कलश शवादान के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

कालीबंगा से किसी भी प्रकार के मंदिरों के अवशेष प्राप्त नहीं हुए हैं।

कालीबंगा सभ्यता के समाज में पुरोहित का स्थान प्रमुख था।

संस्कृत साहित्य में कालीबंगा को ‘बहुधान्यदायक क्षेत्र’ कहा जाता था।

कालीबंगा से मिट् टी के भाण्डों एवं मुहरों पर लिपी के अवशेष मिले हैं।

कालीबंगा से बेलनाकार तंदूरा भी मिला है।

कालीबंगा निवासी गाय, भैंस, भेड़, बकरी, सुअर के साथ-साथ ऊँट एवं कुत्ता भी पालते थे।

पाकिस्तान के कोटदीजी नामक स्थान पर प्राप्त पुरातात्विक अवशेष कालीबंगा के अवशेषों से काफी मिलते

थे।

कालीबंगा के नगरों की सड़कें समकोण पर काटती थी।

कालीबंगा में दो टीलों पर उत्खनन कार्य किया गया, पश्चिम में स्थित पहला टीला छोटा एवं अपेक्षाकृत ऊँचा है तथा पूर्व में स्थित दूसरा टीला अपेक्षाकृत बड़ा एवं नीचा है।

यह दोनों टीलें सुरक्षात्मक दीवार से घिरे हुए थे।

यहाँ के लोगों ने समचतुर्भुजाकार रक्षा प्राचीर के अन्तर्गत आवासों का निर्माण किया। इस सुरक्षा प्राचीर को 2 चरणों में बनाने के प्रमाण मिले हैं।

यहाँ के लोग कच्ची ईटों से बने मकानों में रहते थे तथा मकानों की नालियाँ, शौचालय तथा कुछ संरचनाओं में पक्की ईटों का प्रयोग किया गया है।

कालीबंगा में एक दुर्ग, बेलनाकार मुहरें, ताब का बैल, जुते हुए खेत, सड़कें तथा मकानों के अवशेष प्राप्त हुए है।

कालीबंगा से सात अग्निवेदियाँ प्राप्त हुई हैं।

डॉ. दशरथ शर्मा ने कालीबंगा को सैंधव सभ्यता की तीसरी राजधानी कहा है (पहली हड़प्पा तथा दूसरी मोहनजोदड़ो)

कालीबंगा से उत्खनन में दोहरे जुते हुए खेत के अवशेष प्राप्त हुए हैं जो विश्व में जुते हुए खेत के प्राचीनतम प्रमाण है।

यहाँ से प्राप्त जुते हुए खेत में चना व सरसों बोया जाता था।

कालीबंगा में समकोण दिशा में जुते हुए खेत के साक्ष्य मिले है।

यहाँ से एक ही समय में दो फसलें उगाने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं जिसमें गेहूँ तथा जौ एक साथ बोये जाते थे।

कालीबंगा एक नगरीय प्रधान सभ्यता थी तथा यहाँ पर नगर निर्माण नक्शे के आधार पर किया गया था।

कालीबंगा में मकानों से गन्दे पानी को निकालने के लिए लकड़ी की नालियों का प्रयोग किया जाता था।

कालीबंगा के लोग मुख्यतया शव को दफनाते थे।

कालीबंगा सैंधव सभ्यता का एकमात्र ऐसा स्थल है जहाँ से मातृदेवी की मूतियां प्राप्त नहीं हुई है।

कालीबंगा से मैसोपोटामिया की मिट् टी से निमित मुहर प्राप्त हुई है।

वर्ष 1961 में कालीबंगा अवशेष पर भारत सरकार द्वारा 90 पैसों का डाक टिकट जारी किया गया।

राज्य सरकार द्वारा कालीबंगा से प्राप्त पुरा अवशेषों के संरक्षण हेतु वर्ष 1985-86 में एक संग्रहालय की स्थापना की गई।

कालीबंगा सभ्यता की लिपि सैन्धवकालीन लिपि (ब्रूस्ट्रोफेदन लिपि) के समान थी जो दायें से बाऐं की ओर

लिखी जाती थी। इस लिपि को अभी तक नहीं पढ़ा जा सका है।

राजस्थान में कालीबंगा नामक स्थान पर विशाल सांडों की जुड़वा पैरों वाली मिट् टी की मूति मिली है।

2. आहड़ (उदयपुर):-

आहड़ नामक ताम्रयुगीन सभ्यता उदयपुर में आयड़ नदी के किनारे स्थित है।

आहड़ सभ्यता का विकास बनास नदी घाटी में माना जाता है।

दसवीं-ग्यारहवीं शताब्दी में इसे आघाटपुर के नाम से जाना जाता था। इसे ताम्रवती नगरी भी कहा जाता था।

इसका एक अन्य नाम धूलकोट भी है।

इसके उत्खनन का कार्य सर्वप्रथम 1953 में अक्षयकीति व्यास के नेत्तृत्व में हुआ।

यहाँ पर व्यापक उत्खनन कार्य आर. सी. अग्रवाल द्वारा 1954 में करवाया गया।

1961-62 में यहाँ वी. एन. मिश्रा एवं एच. डी. सांकलिया द्वारा यहाँ उत्खनन करवाया गया।

आहड़ के उत्खनन अभियान के समय राजस्थान सरकार की ओर से विजय कुमार एवं पी. सी. चक्रवर्ती भी उपस्थित रहे।

डॉ. सांकलिया ने इसे आहड़ या बनास संस्कृति कहा है।

यहाँ पर उत्खनन के फलस्वरूप बस्तियों के कई स्तर प्राप्त हुए है।

पहले स्तर में मिट् टी की दीवारें, मिट् टी के बर्तनों के टुकड़े तथा पत्थर के ढेर प्राप्त हुए है।

आहड़वासी धूप में सुखाई गई कच्ची ईंटों से मकानों का निर्माण करते थे।

आहड़वासी कृषि (चावल की खेती) एवं पशुपालन (कुत्ता, हाथी आदि) से परिचित थे।

गिलुण्ड (राजसमन्द) से आहड़ के समान धर्म संस्कृति मिली है।

आहड़ से छपाई के ठप्पे, आटा पिसने की चक्की, चित्रित बर्तन एवं तांबे के उपकरण मिले हैं।

आहड़ के लोग मृतकों को कपड़ों एवं आभूषण के साथ गाड़ते थे।

आहड़ के लोगों के अधिकांशतः आभूषण मिट् टी के मनकों के बने होते थे।

आहड़वासी लाल एवं काले रंग के मृदपात्रों का उपयोग करते थे।

ONE

तीसरी बस्ती में कुछ चित्रित बर्तन तथा उनका घरों में प्रयोग

चौथी बस्ती से दो तांबे की कुल्हाडियां प्राप्त हुई हैं।

आहड़वासी ताम्रधातु कर्मी थे।

आहड़ से अनाज रखने के मृदभांड प्राप्त हुए हैं जिन्हें स्थानीय भाषा में ‘गोरे’ यो ‘कोठ’ कहा जाता है

आहड़ से ताबे की छः मुद्राएं तथा तीन मुहरें प्राप्त हुई है जिनका समय तीन ईसा पूर्व से प्रथम ईसा पूर्व है।

यहाँ से प्राप्त एक मुद्रा पर एक ओर त्रिशूल तथा दूसरी ओर अपोलो देवता का चित्रण किया गया है। इस पर

यूनानी भाषा में लेख भी अंकित किया गया है।

यहाँ के लोगों का प्रमुख व्यवसाय तांबा गलाना तथा उससे उपकरण बनाना था।

आहड़ से पक्की ईटों के प्रयोग के प्रमाण नहीं प्राप्त हुए हैं।

डॉ. गोपीनाथ शर्मा ने आहड़ सभ्यता का समृद्ध काल 1900 ई. पू. से 1200 ई.पू. तक माना है।

आहड़ से प्राप्त एक ही मकान में 4 से 6 चूल्हों का प्राप्त होना संयुक्त परिवार व्यवस्था की ओर संकेत करते

है।

आहड़ सभ्यता के लोग मिट् टी के बर्तन पकाने की उल्टी तिपाई विधि से परिचित थे।

आहड़ से मिट् टी की बनी वृषभ आकृतियां प्राप्त हुई है जिन्हें बनासियन बुल कहा गया है।

3. गिलूण्ड (राजसमंद) :-

यह ताम्रयुगीन सभ्यता राजसमन्द जिले में बनास नदी के तट पर स्थित है।

‘मोडिया मगरी’ नामक टीले का संबंध गिलूण्ड सभ्यता से है।

वर्ष 1957-58 में बी. बी. लाल द्वारा यहाँ पर उत्खनन कार्य करवाया गया।

यहाँ पर पक्की इटों के प्रयोग के साक्ष्य प्राप्त होते हैं।

यहाँ पर उत्खनन से ताम्रयुगीन सभ्यता एवं बाद की सभ्यताओं के अवशेष मिले हैं।

यहाँ पर आहड़ सभ्यता का प्रसार था तथा इसी के समय यहाँ मृदभांड, मिट् टी की पशु आकृतियां आदि के चित्र मिले हैं।

गिलूंड के मृदभांडो पर ज्यामितीय चित्रांकन के अलावा प्राकृतिक चित्रांकन भी किया गया है।

गिलूण्ड में उच्च स्तरीय जमाव में क्रीम रंग एवं काले रंग से चित्रित पात्रों पर चिकतेदार हरिण प्रकाश में आए है।

गिलूण्ड में लाल एवं काले रंग के मृदभाण्ड मिले हैं।

4. बागोर (भीलवाड़ा) :-

यह एक पाषाणकालीन सभ्यता स्थल है।

यह स्थल भीलवाड़ा की मांडल तहसील में कोठारी नदी के तट पर स्थित है।

यहाँ पर उत्खनन कार्य 1967-68 में डॉ. विरेन्द्रनाथ मिश्र, डॉ. एल.एस. लेनिक व डेक्कन कॉलेज पूना तथा

राजस्थान पुरातत्व विभाग के सहयोग से किया गया।

बागोर सभ्यता के तीन स्तरों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

महासतियों का टीला :- बागोर सभ्यता का उत्खन स्थल

बागोर की सभ्यता को ‘आदिम संस्कृति का संग्रहालय’ माना जाता है।

यहाँ से 14 प्रकार की कृषि किए जाने के अवशेष मिले हैं।

यहाँ के लोग कृषि, पशुपालन एवं आखेट करते थे।

यहाँ उत्खनन से पाँच तांबे के उपकरण प्राप्त हुए हैं जिनमें से एक 10.5 सेमी. छेद वाली सूई है।

बागोर में कृषि एवं पशुपालन के प्राचीनतम साक्ष्य प्राप्त हुए हैं।

यहाँ के मकान पत्थर से बने थे तथा फर्श में भी पत्थरों को समतल कर जमाया जाता था।

यहाँ से प्राप्त पाषाण उपकरणों में ब्लेड, छिद्रक, स्क्रेपर तथा चाद्रिक आदि प्रमुख हैं।

5. बालाथल (उदयपुर)

उदयपुर जिले में बालाथल गाँव के पास बेड़च नदी के निकट एक टीले के उत्खनन से यहाँ ताम्र-पाषाणकालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं

इस सभ्यता की खोज 1962-63 में डॉ. वी. एन. मिश्र द्वारा की गई।

डॉ. वी. एस. शिंदे, आर. के. मोहन्ते, डॉ. देव कोठारी एवं डॉ. ललित पाण्डे का सम्बन्ध इसी सभ्यता से माना

जाता हैइन्होंने 1993 में इस सभ्यता का उत्खनन किया था।

बालाथल में उत्खनन से एक 11 कमरों के विशाल भवन के अवशेष मिले है।

यहाँ के लोग बर्तन बनाने तथा कपड़ा बुनने के बारे में जानकारी रखते थे।

बालाथल से लौहा गलाने की 5 भट्टियाँ प्राप्त हुई हैं।

बालाथल से कपड़े का टुकड़ा प्राप्त हुआ है।

बालाथल के उत्खनन में मिट् टी से बनी सांड की आकृतियाँ मिली हैं।

बालाथल निवासी माँसाहारी भी थे।

यहाँ से 4000 वर्ष पुराना कंकाल मिला है जिसको भारत में कुष्ठ रोग का सबसे पुराना प्रमाण माना जाता है।

यहाँ से योगी मुद्रा में शवाधान का प्रमाण प्राप्त हुआ है।

बालाथल में अधिकांश उपकरण तांबे के बने प्राप्त हुए हैं। यहाँ से तांबे के बने आभूषण भी प्राप्त हुए है।

यहाँ के लोग कृषि, शिकार तथा पशुपालन आदि से परिचित थे।

बालाथल से प्राप्त बैल व कुत्ते की मृण्मूतियां विशेष उल्लेखनीय है।

6. गणेश्वर (सीकर) :-

सीकर जिले में नीम का थाना स्थान से कुछ दूरी पर स्थित गणेश्वर से उत्खनन में ताम्रयुगीन उपकरण प्राप्त हुए है। ONE

यह स्थान कांतली नदी के किनारे स्थित है।

गणेश्वर को पूर्व हड़प्पा कालीन सभ्यता माना जाता है।

गणेश्वर सभ्यता 2800 ईसा पूर्व में विकसित हुई थी।

गणेश्वर को ‘पुरातत्व का पुष्कर’ भी कहा जाता है।

भारत में पहली बार किसी स्थान से इतनी मात्रा में ताम्र उपकरण प्राप्त हुए हैं।

गणेश्वर से तांबे का बाण एवं मछली पकड़ने का कांटा प्राप्त हुआ है।

इन उपकरणों में तीर, भाले, सूइयां, कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने के कांटे आदि शामिल है।

गणेश्वर को भारत में ‘ताम्रयुगीन सभ्यताओं की जननी’ कहा जाता है।

यहाँ पर उत्खनन कार्य रत्नचंद्र अग्रवाल द्वारा 1977 में तथा विस्तृत उत्खनन 1978-79 में विजय कुमार द्वारा करवाया गया।

गणेश्वर से उत्खनन में जो मृदभांड प्राप्त हुए है उन्हें कपिषवर्णी मृदपात्र कहते हैं।

गणेश्वर से मिट् टी के छल्लेदार बर्तन भी प्राप्त हुए हैं।

गणेश्वर से काले एवं नीले रंग से अलंकृत मृदपात्र मिले हैं।

गणेश्वर में बस्ती को बाढ़ से बचाने हेतु वृहदाकार पत्थर के बाँध बनाने के प्रमाण मिले हैं

गणेश्वर में ईंटों के उपयोग के प्रमाण नहीं मिले हैं।

मिट् टी के छल्लेदार बर्तन केवल गणेश्वर में ही प्राप्त हुए हैं।

गणेश्वर सभ्यता के उत्खनन से दोहरी पेचदार शिरेवाली ताम्रपिन भी प्राप्त हुई है।

गणेश्वर सभ्यता के लोग गाय, बैल, बकरी, सुअर, कुत्ता, गधा आदि पालते थे।

गणेश्वर सभ्यता को ‘ताम्र संचयी संस्कृति’ भी कहा जाता है।

7. रंगमहल ( हनुमानगढ़) :-

रंगमहल हनुमानगढ़ जिले में सरस्वती (वर्तमान में घग्घर) नदी के पास स्थित है।

यह एक ताम्रयुगीन सभ्यता है।

यहाँ पर उत्खनन कार्य डॉ. हन्नारिड के निर्देशन में स्वीडिश दल द्वारा 1952-54 ई. में किया गया।

ये मृदभांड चाक से बने होते थे तथा ये पतले तथा चिकने होते थे।

यहाँ से कुषाणकालीन तथा उससे पहले की 105 ताब की मुद्राएँ प्राप्त हुई है जिनमें कुछ पंचमार्क मुद्राएं भी है।

यहाँ से ब्राह्मी लिपि में नाम अकित दो कांसे की सीलें भी प्राप्त हुई है।

यहाँ से उत्खनन में डॉ. हन्नारिड को प्राप्त मिट् टी का कटोरा स्वीडन के लूण्ड संग्रहालय में सुरक्षित है।

यहाँ के निवासी मुख्य रूप से चावल की खेती करते थे।

यहाँ के मकानों का निर्माण ईटों से होता था।

यहाँ से प्राप्त मृद भांड मुख्यतः लाल या गुलाबी रंग के थे।

यहाँ से गांधार शैली की मृणमूतियाँ, टोटीदार घड़े, घण्टाकार मृद्घात्र एवं कनिष्क कालीन मुद्राएं प्राप्त हुई हैं।

रंगमहल से ही गुरु-शिष्य की मिट् टी की मूति प्राप्त हुई है।

इसे कुषाणकालीन सभ्यता के समान माना जाता है।

रंगमहल में बसने वाली बस्तियों के तीन बार बसने एवं उजड़ने के प्रमाण मिले हैं।

8. बैराठ (जयपुर):-

बैराठ जयपुर जिले में शाहपुरा उपखण्ड में बाणगंगा नदी के किनारे स्थित लौहयुगीन स्थल है।

बैराठ का प्राचीन नाम ‘विराटनगर’ था। महाजनपद काल में यह मत्स्य जनपद की राजधानी था

यहाँ पर उत्खनन कार्य वर्ष 1936-37 में दयाराम साहनी द्वारा तथा 1962-63 में नीलरत्न बनर्जी तथा कैलाशनाथ दीक्षित द्वारा किया गया

वर्ष 1837 में कैप्टन बर्ट ने यहाँ से मौर्य सम्राट अशोक के भाबू शिलालेख की खोज की। वर्तमान में यह

शिलालेख कलकत्ता संग्रहालय में सुरक्षित है।

भाबू शिलालेख में सम्राट अशोक को ‘मगध का राजा’ नाम से संबोधित किया गया है।

भाबू शिलालेख के नीचे बुद्ध, धम्म एवं संघ लिखा हुआ है।

बैराठ में बीजक की पहाड़ी, भीमजी की डूंगरी तथा महादेवजी की डूंगरी से उत्खनन कार्य किया गया।

यहाँ से मौर्यकालीन तथा इसके बाद के समय के अवशेष मिले है।

यहाँ से 36 मुद्राएँ प्राप्त हुई है जिनमें 8 पंचमार्क चांदी की तथा 28 इण्डो-ग्रीक तथा यूनानी शासकों की है। 16 मुद्राएँ यूनानी शासक मिनेण्डर की है।

उत्तर भारतीय चमकीले मृद् भांड वाली संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने वाले राजस्थान में सबसे महत्वपूर्ण प्राचीन स्थल बैराठ है।

वर्ष 1999 में बीजक की पहाड़ी से अशोक कालीन गोल बौद्ध मंदिर, स्तूप एवं बौद्ध मठ के अवशेष मिले हैं जो हीनयान सम्प्रदाय से संबंधित है।

बैराठ सभ्यता के लोगों का जीवन पूर्णतः ग्रामीण संस्कृति का था।

बैराठ में पाषाणकालीन हथियारों के निर्माण का एक बड़ा कारखाना स्थित था।

यहाँ भवन निर्माण के लिए मिट् टी की बनाई ईंटों का प्रयोग अधिक किया जाता था।

यहाँ पर शुंग एवं कुषाण कालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं।

ये सभी एक मृद् भांड में सूती कपड़े से बंधी मिली है।

बैराठ सभ्यता के लोग लौह धातु से परिचित थे। यहाँ उत्खनन से लौहे के तीर तथा भाले प्राप्त हुए हैं।

ऐसा माना जाता है कि हूण शासक मिहिरकुल ने बैराठ को नष्ट कर दिया।

634 ई. में हेनसांग विराटनगर आया था तथा उसने यहाँ बौद्ध मठों की संख्या 8 बताई है।

बैराठ से ‘शंख लिपि’ के प्रमाण प्रचुर मात्रा में प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से मुगलकाल में टकसाल होने के प्रमाण मिलते है। यहाँ मुगल काल में ढाले गये सिक्कों पर ‘बैराठ अंकित’ मिलता है।

यहाँ बनेड़ी, ब्रह्मकुण्ड तथा जीणगोर की पहाड़ियों से वृक्षभ, हिरण तथा वनस्पति का चित्रण प्राप्त होता है।

9. ओझियाना (भीलवाड़ा) :-

भीलवाड़ा के बदनोर के पास खारी नदी के तट पर स्थित यह स्थल ताम्रयुगीन आहड़ संस्कृति से संबंधित है।

इस स्थल का उत्खनन बी. आर. मीणा तथा आलोक त्रिपाणी द्वारा वर्ष 1999-2000 में किया गया।

यह पुरातात्विक स्थल पहाड़ी पर स्थित था जबकि आहड़ संस्कृति से जुड़े अन्य स्थल नदी घाटियों में पनपे थे।

यहाँ से वृषभ तथा गाय की मृण्यमय मूतियां प्राप्त हुई है जिन पर सफेद रंग से चित्रण किया हुआ है।

यहाँ से प्राप्त अवशेषों के आधार पर इस संस्कृति का विकास तीन चरणों में हुआ माना जाता है।

यहाँ से कार्नेलियन फियान्स तथा पत्थर के मनके, शंख एवं ताम्र की चूड़ियाँ तथा अन्य आभूषण भी मिले हैं।

इस सभ्यता का काल 2500 ईसा पूर्व से 1500 ईसा पूर्व तक माना जाता है।

10. नगरी (चित्तौड़गढ़) :-

नगरी नामक पुरातात्विक स्थल चितौड़गढ़ में बेड़च नदी के तट पर स्थित है जिसका प्राचीन नाम माध्यमिका मिलता है।

यहाँ पर सर्वप्रथम उत्खनन कार्य वर्ष 1904 में डॉ. डी. आर. भण्डारकर द्वारा तथा तत्पश्चात 1962-63 में केन्द्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा करवाया गया।

यहाँ से शिवि जनपद के सिक्के तथा गुप्तकालीन कला के अवशेष प्राप्त हुए है।

प्राचीन नाम ‘माध्यमिका’ पतंजलि के महाभाष्य में मिलता है।

यहाँ से ही घोसुण्डी अभिलेख (द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व) प्राप्त हुआ है।

नगरी शिवि जनपद की राजधानी रही है।

यहाँ पर ‘कुषाणकालीन स्तर’ में नगर की सुरक्षा हेतु निमित मजबूत दीवार बनाये जाने के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

नगरी की खोज 1872 ई. में कालाईल द्वारा की गई।

यहाँ से चार चक्राकार कुएँ भी प्राप्त हुए हैं।

11. जोधपुरा (जयपुर) :-

जोधपुरा नामक पुरातात्विक स्थल जयपुर जिले की कोटपुतली तहसील में साबी नदी के किनारे स्थित है।

यह एक लौहयुगीन प्राचीन सभ्यता स्थल है।

यहाँ पर उत्खनन कार्य 1972-73 में आर.सी. अग्रवाल तथा विजय कुमार के निर्देशन में सम्पन्न हुआ।

जोधपुरा से ताम्रयुगीन सभ्यता के प्रतीक कपिषवर्णी मृदभांडो का डेढ़ मीटर का जमाव प्राप्त हुआ है।

यहाँ उत्खनन से प्राप्त ताम्रयुगीन मृद् भांडो पर सिधु सभ्यता का प्रभाव दिखाई देता है।

यह सलेटी रंग की चित्रित मृदभांड संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्थल था।

जोधपुरा से लौह अयस्क से लौह धातु का निष्कर्षण करने वाली भट्टियाँ भी प्राप्त हुई है।

इस सभ्यता में मानव ने घोड़े का उपयोग रथ के खींचने में करना प्रारम्भ कर दिया था।

जोधपुरा में मकान की छतों पर टाईल्स का प्रयोग एवं छप्पर छाने का रिवाज था।

इस सभ्यता के लोगों का मुख्य आहार चावल एवं माँस था।

यह सभ्यता 2500 ईसा पूर्व से 200 ई. के मध्य फली-फूली।

यह शुंग एवं कुषाणकालीन सभ्यता स्थल है।

12. सुनारी (झुंझुनू) :-

जोधपुरा एवं सुनारी (झुंझुनू) से मौयकालीन सभ्यता के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। ZONE

सुनारी नामक पुरातात्विक स्थल झुंझुनूं की खेतड़ी तहसील में कांतली नदी के किनारे स्थित है।

यहाँ पर उत्खनन कार्य 1980-81 में राजस्थान राज्य पुरातत्व विभाग द्वारा करवाया गया।

यहाँ से लौहा गलाने की प्राचीनतम भट्टियाँ प्राप्त हुई है।

यहाँ से सलेटी रंग के मृदभांड संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

सुनारी से मातृदेवी की मृणमूतियाँ तथा धान संग्रहण का कोठा प्राप्त हुआ है।

सुनारी से मौर्यकालीन सभ्यता के अवशेष मिलते हैं जिनमें काली पॉलिश युक्त मृदपात्र है।

जोधपुरा, नोह तथा सुनारी से शुंग तथा कुषाणकालीन अवशेष भी प्राप्त होते हैं।

सुनारी के निवासी भोजन के चावल का प्रयोग करते थे तथा घोड़ों से रथ खींचते थे।

सुनारी से लौहे के तीर, भाले के अग्रभाग, लौहे का कटोरा तथा कृष्ण परिमार्जित मृद् पात्र भी मिले हैं।

13. तिलवाड़ा (बाड़मेर):-

तिलवाड़ा बाड़मेर जिले में लूणी नदी के किनारे स्थित पुरातात्विक स्थल है।

यहाँ पर उत्खनन कार्य 1967-68 में ‘राजस्थान राज्य पुरातत्व विभाग’ द्वारा करवाया गया।

यहाँ पर उत्खनन का कार्य डॉ. वी. एन. मिश्र के नेतृत्व में किया गया।

यह एक ताम्र पाषाणकालीन स्थल है जहाँ से 500 ई. पू. से 200 ई. तक विकसित सभ्यताओं के अवशेष मिले

है।

यहाँ से उत्तर पाषाण युग के भी अवशेष प्राप्त हुए हैं।

यहाँ पर उत्खनन से पाँच आवास स्थलों के अवशेष मिले हैं।

यहाँ एक अग्निकुण्ड मिला है जिसमें मानव अस्थि भस्म तथा मृत पशुओं के अवशेष मिले हैं।

14. रैढ़ (टोंक):-

रैद टोंक जिले की निवाई तहसील में ढील नदी के किनारे स्थित पुरातात्विक स्थल है।

यह एक लौह युगीन सभ्यता है।

यहाँ पर उत्खनन कार्य 1938-39 में दयाराम साहनी के नेतृत्व में तथा अतिम रूप में उत्खनन कार्य डॉ. केदारनाथ पूरी के द्वारा करवाया गया।

रैढ़ के उत्खनन से बड़ी मात्रा में मिलने वाले लौह उपकरणों तथा मुद्राओं के कारण इसे प्राचीन भारत का टाटानगर कहा जाता है।

यह एक धातु केंद्र था जहाँ पर औद्योगिक कार्य एवं निर्यात हेतु उपकरण एवं औजार बनाए जाते थे।

रैढ़ में उत्खनन से 3075 आहत मुद्राएं तथा 300 मालव जनपद के सिक्के प्राप्त हुए है। यहाँ से यूनानी शासक अपोलोडोट्स का एक खण्डित सिक्का भी प्राप्त हुआ है।

रैढ़ में उत्खनन से हल्के गुलाबी रंग से मिट् टी का बना एक संकीर्ण गर्दन वाला फूलदान प्राप्त हुआ है।

यहाँ से प्राप्त मृदभांड चक्र से निमित है तथा यहाँ से विभिन्न प्रकार के मिट् टी के बर्तन प्राप्त हुए हैं।

रैढ़ के मृद् भांडो में गोल ‘रिंग वेल्स’ एक दूसरे पर लगा दिए जाते थे।

रैढ़ में पकाई गई मातृ देवी व शक्ति के विभिन्न रूपों की मूतियां प्राप्त हुई है।

यहाँ से कर्णफूल, गले का हार, चूिड़यां, पायजेब आदि आभूषणों के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से आलीशान इमारतों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं।

रैढ़ से मृतिका से बनी यक्षिणी की प्रतिमा प्राप्त हुई है जो संभवतः शृंग काल की मानी जाती है।

यहाँ से मालव जनपद के 14 सिक्के, 6 सेनापति सिक्के एवं 7 वपू के सिक्के प्राप्त हुए हैं।

रैद से एशिया का अब तक का सबसे बड़ा सिक्कों का भण्डार मिला है।

रैद से जस्ते को साफ करने के प्रमाण मिले है।

रैढ़ के निवासी मोटा एवं बारीक कपड़ा बनाने में सिद्धहस्त थे।

15. नगर (टोंक)-

नगर पुरातात्विक स्थल टोंक जिले में उणियारा कस्बे के पास स्थित है। इसे ककर्कोट नगर भी कहा जाता है।

इसका प्राचीन नाम ‘मालव नगर’ था।

यहाँ पर उत्खनन कार्य 1942-43 में श्रीकृष्ण देव द्वारा किया गया।

यहाँ से बड़ी संख्या में मालव सिक्के तथा आहत मुद्राएं प्राप्त हुई है।

यहाँ से प्राप्त मृदभांडो के अधिकतर अवशेषों का रंग लाल है।

नगर में उत्खनन से गुप्तोत्तर काल की स्लेटी पत्थर से निमित महिषासुरमदिनी की मूति प्राप्त हुई है।

इसके अतिरिक्त यहाँ से मोदक रूप में गणेश का अंकन, फणधारी नाग का अंकन, कमल धारण किए लक्ष्मी की खड़ी प्रतिमा प्राप्त हुई है।

.वर्तमान में नगर सभ्यता को ‘खेड़ा सभ्यता’ के नाम से जाना जाता है।

नगर के उत्खनन से 6000 मालव सिक्के मिले हैं।

नगर से लाल रंग के मृद् भांड एवं अनाज भरने के कलात्मक मटकों के अवशेष प्राप्त हुए है।

16. भीनमाल (जालौर):-

यहाँ पर उत्खनन कार्य 1953-54 में रतनचंद्र अग्रवाल के निर्देशन में किया गया।

यहाँ के मृद पात्रों पर विदेशी प्रभाव दिखाई देता है।

यहाँ की खुदाई से मृद् भांड तथा शक क्षत्रपों के सिक्के प्राप्त हुए है।

भीनमाल से यूनानी दुहत्थी सुराही भी प्राप्त हुई है।

यहाँ से रोमन ऐम्फोरा (सुरापात्र) भी मिला है।

यहाँ से ईसा की प्रथम शताब्दी एवं गुप्तकालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं।

संस्कृत विद्वान महाकवि माघ एवं गुप्तकालीन विद्वान ब्रह्मगुप्त का जन्म स्थान भीनमाल ही माना जाता है। ONE

चीनी यात्री हेनसांग ने भी भीनमाल की यात्रा की।

17. नोह (भरतपुर):-

वर्ष 1963-64 में रतनचंद्र अग्रवाल के निर्देशन में यहाँ पर उत्खनन कार्य किया गया।

रेडियो कार्बन तिथि के अनुसार इस सभ्यता का समय 1100 ई.पू. से 900 ई.पू. माना जाता है।

यहाँ से उत्खनन में विशालकाय यक्ष प्रतिमा तथा मौर्यकालीन पॉलिश युक्त चुनार के चिकने पत्थर से टुकड़े

प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से प्राप्त एक पात्र पर ब्राह्मी लिपि में लेख अकित है।

यह एक लौहयुगीन सभ्यता है तथा यहाँ से प्राप्त भांड काले तथा लाल वेयर युक्त है।

यहाँ पर एक ही स्थान से 16 रिगवेल प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से 5 सांस्कृतिक युगों के अवशेष मिले हैं।

यहाँ से लौहे के कृषि संबंधी उपकरण एवं चक्रकूपों के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

यहाँ के निवासी मकान बनाने के लिए पक्की ईंटों का प्रयोग करते थे।

यहाँ से कुषाण नरेश हुविस्क एवं वासुदेव के सिक्के प्राप्त हुए है।

नोह से ताम्र युगीन, आर्य युगीन एवं महाभारत कालीन सभ्यता के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

18. बरोर (गंगानगर):-

गंगानगर में सरस्वती नदी के तट पर इस सभ्यता के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

वर्ष 2003 में यहाँ उत्खनन कार्य शुरू किया गया।

यहाँ से प्राप्त अवशेषों के आधार पर इस सभ्यता को प्राक् प्रारंभिक तथा विकसित हड़प्पा काल में बांटा गया है।

यहाँ के मृद् भांडो में काली मिट् टी के प्रयोग के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

वर्ष 2006 में यहाँ मिट् टी के पात्र में सेलखड़ी के 8000 मनके प्राप्त हुए हैं।

यह स्थल हड़प्पाकालीन विशेषताओं के समान जैसे सुनियोजित नगर व्यवस्था, मकान निर्माण में कच्ची इटों का प्रयोग तथा विशिष्ट मृद भांड परम्परा आदि से युक्त है।

यहाँ से बटन के आकार की मुहरें प्राप्त हुई है।

19. ईसवाल (उदयपुर):-

लौह युगीन सभ्यता।

प्राचीन औद्योगिक बस्ती।

इस स्थल का उत्खनन कार्य राजस्थान विद्यापीठ, उदयपुर के पुरातत्व विभाग के निर्देशन में किया गया।

यहाँ से निरन्तर लौहा गलाने के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से प्राक् ऐतिहासिक काल से मध्यकाल तक का प्रतिनिधित्व करने वाली मानव बस्ती के प्रमाण पाँच स्तरों से प्राप्त हुए है।

यहाँ पर 5वीं शताब्दी ई.पू. में लोहा गलाने का उद्योग विकसित होने के प्रमाण है।

यहाँ से प्राप्त सिक्कों को प्रारंभिक कुषाणकालीन माना जाता है।

मौर्य, शुंग, कुषाणकाल में यहाँ लौहा गलाने का कार्य होता था।

यहाँ उत्खनन में ऊँट का दाँत एवं हड्डियाँ मिली हैं।

यहाँ के मकान पत्थरों से बनाये जाते थे।

20. लाछूरा (भीलवाड़ा) –

यह पुरातात्विक स्थल भीलवाड़ा जिले की आसींद तहसील में स्थित है।

यहाँ पर उत्खनन कार्य वर्ष 1998-1999 में बी. आर. मीना के निर्देशन में किया गया।

यहाँ से 700 ई. पू. से 200 ई. तक की सभ्यताओं के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से मानव तथा पशुओं की मृण्यमूतियां, ताबे की चूड़ियां, मिट् टी की मुहरें जिस पर ब्राह्मी लिपि में 4 अक्षर

अंकित है, ललितासन में नारी की मृण्यमूति आदि प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से शुंगकालीन तीखे किनारे वाले प्याले प्राप्त हुए हैं।

21. जूनाखेड़ा (पाली) :-

इस पुरातात्विक स्थल की खोज गैरिक ने की थी।

यहाँ से उत्खनन में मिटू टी के बर्तन पर ‘शालभजिका’ का अंकन मिला है।

इसके अतिरिक्त यहाँ से काले ओपदार कटोरे तथा छोटे आकार के दीपक प्राप्त हुए है।

22. नलियासर (जयपुर):-

जयपुर स्थित इस पुरातात्विक स्थल से चौहान वंश से पूर्व की सभ्यता के प्रमाण प्राप्त हुए हैं।

यहाँ से ब्राह्मी लिपि में लिखित कुछ मुहरें प्राप्त हुई है।

यहाँ से आहत मुद्राएँ, उत्तर इण्डोससेनियन सिक्के, कुषाण शासक हुविस्क, इण्डोग्रीक, यौधेयगण तथा गुप्तकालीन चाँदी के सिक्के मिले हैं।

यहाँ से 105 कुषाणकालीन सिक्के प्राप्त हुए हैं।

इस सभ्यता का समय तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व से छठी सदी तक माना जाता है।

23. कुराड़ा (नागौर) :-

यह ताम्रयुगीन सभ्यता स्थल है।

यहाँ से ताम्र उपकरणों के अतिरिक्त प्रणालीयुक्त अर्घ्यपात्र प्राप्त हुआ है।

24. किराडोत (जयपुर):

इस सभ्यता स्थल से ताम्रयुगीन 56 चूड़ियाँ प्राप्त हुई है। इसमें अलग-अलग आकार की 28 चूड़ियों की 2 सेट प्राप्त हुए हैं।

25. गरहदा (बूंदी) :

छाजा नदी के किनारे स्थित इस स्थान से पहली बर्ड राइडर रॉक पेंटिंग प्राप्त हुई है।

यह देश में प्रथम पुरातत्व महत्त्व की पेंटिंग है

26. कोटड़ा (झालावाड़):

इस स्थल का उत्खनन वर्ष 2003 में दीपक शोध संस्थान द्वारा किया गया।

यहाँ से 7वीं से 12वीं शताब्दी मध्य के अवशेष प्राप्त हुए है।

27. मलाह (भरतपुर)-

यह स्थल भरतपुर जिले के घना पक्षी अभयारण्य में स्थित है।

इस स्थल से अधिक संख्या में तांबे की तलवारें एवं हार्पून प्राप्त हुए हैं।

28. कणसव (कोटा) :-

इस स्थल से मोर्य शासक धवल का 738 ई. से संबधित लेख मिला है।

29. नैनवा (बूंदी):

यहाँ पर उत्खनन कार्य श्रीकृष्ण देव के निर्देशन में सम्पन्न हुआ।

• इस स्थल से 2000 वर्ष पुरानी महिषासुरमदिनी की मृण मूति प्राप्त हुई है।

30. डडीकर (अलवर):-

इस स्थल से पाँच से सात हजार वर्ष पुराने शैलचित्र प्राप्त हुए हैं।

31. सोथी:-

यह बीकानेर में स्थित है।

खोज अमलानंद घोष द्वारा (1953 में) की गई।

यह कालीबंगा प्रथम के नाम से प्रसिद्ध है।

यहाँ पर हड़प्पाकालीन सभ्यता के अवशेष मिले हैं।

32. बांका:-

यह भीलवाड़ा जिले में स्थित है।

यहाँ से राजस्थान की प्रथम अलंकृत गुफा मिली है।

33. गुरारा :-

सीकर जिले में स्थित है।

यहाँ से हमें चाँदी के 2744 पंचमार्क सिक्के मिले हैं।

34. बयाना :-

यह भरतपुर में स्थित है।

इसका प्राचीन नाम श्रीपंथ है।

यहाँ से गुप्तकालीन सिक्के एवं नील की खेती के साक्ष्य मिले हैं।

Share your love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *